Early Identification and Intervention

📘 Unit 4: शीघ्र पहचान और हस्तक्षेप

👶 4.1 Concept, Need, Importance and Domains of Early Identification and Intervention

यह इकाई विशेष शिक्षा का हृदय है। यह केवल “पढ़ाई” नहीं है, बल्कि एक “जीवन रक्षक” प्रक्रिया है। शोध बताते हैं कि 0 से 6 वर्ष के बीच किया गया हस्तक्षेप बच्चे के जीवन को पूरी तरह बदल सकता है।

A. Concept of Early Identification (शीघ्र पहचान की अवधारणा)

Definition (परिभाषा): शीघ्र पहचान एक व्यवस्थित प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पहचान करना है जो विकास में पिछड़ रहे हैं (Developmental Delay) या जिनमें विकलांगता होने का उच्च जोखिम (High Risk) है। यह प्रक्रिया गर्भावस्था (Prenatal) से शुरू होकर स्कूल जाने की उम्र (6 वर्ष) तक चलती है।

The Spectrum of Identification:

  1. Prenatal (जन्म पूर्व): अल्ट्रासाउंड और एमनियोसेंटेसिस (Amniocentesis) के माध्यम से डाउन सिंड्रोम या स्पाइना बिफिडा जैसी स्थितियों का पता लगाना।
  2. Natal (जन्म के समय): APGAR स्कोर और जन्म के वजन (Birth Weight) के आधार पर ‘High Risk’ शिशुओं को पहचानना।
  3. Postnatal (जन्म के बाद): माता-पिता या आशा वर्कर द्वारा यह देखना कि बच्चा समय पर गर्दन संभाल रहा है या नहीं।

Who are “At-Risk” Children? (जोखिम वाले बच्चे कौन हैं?) शीघ्र पहचान के लिए हमें “High Risk Register” बनाए रखना होता है। इसमें शामिल हैं:

  • Biological Risk:
    • समय से पहले जन्म (Prematurity < 37 weeks).
    • जन्म के समय कम वजन (Low Birth Weight < 2.5 kg).
    • जन्म के समय ऑक्सीजन की कमी (Birth Asphyxia – Delayed Cry).
    • नवजात पीलिया (Severe Jaundice – Kernicterus).
    • मिर्गी के दौरे (Neonatal Seizures).
  • Environmental Risk:
    • अत्यधिक गरीबी और कुपोषण।
    • माता-पिता का कम शिक्षित होना या मानसिक अस्वस्थता।
    • बच्चे के प्रति उपेक्षा (Neglect) या दुर्व्यवहार।

B. Concept of Early Intervention (शीघ्र हस्तक्षेप – EI)

Definition: शीघ्र पहचान के तुरंत बाद बच्चे और उसके परिवार को दी जाने वाली बहु-विषयक (Multidisciplinary) सेवाओं को ‘शीघ्र हस्तक्षेप’ कहते हैं। इसका उद्देश्य बच्चे के विकास को बढ़ावा देना और विकलांगता के प्रभाव को कम करना है।

The Neuroscience: Brain Plasticity (मस्तिष्क की नमनीयता)

शीघ्र हस्तक्षेप का पूरा विज्ञान Neuroplasticity पर आधारित है। इसे विस्तार से समझें:

  1. Rapid Brain Growth: जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क वयस्क मस्तिष्क का केवल 25% होता है। 3 साल की उम्र तक यह 80% हो जाता है।
  2. Synaptogenesis: जीवन के पहले 3 वर्षों में, मस्तिष्क प्रति सेकंड 700-1000 नए न्यूरॉन कनेक्शन (Synapses) बनाता है। यह सीखने की सबसे तेज गति है।
  3. Pruning (छंटाई): जो कनेक्शन इस्तेमाल होते हैं, वे मजबूत होते हैं। जो इस्तेमाल नहीं होते, मस्तिष्क उन्हें हटा देता है (Use it or Lose it)।
  4. Critical Periods: विकास की कुछ खिड़कियां होती हैं। उदाहरण के लिए, भाषा सीखने का सबसे अच्छा समय 0-3 वर्ष है। यदि इस दौरान बच्चे को भाषा का इनपुट नहीं मिलता (जैसे बधिरता के कारण), तो बाद में भाषा सीखना बहुत मुश्किल हो जाता है।
  5. Rewiring: यदि मस्तिष्क के एक हिस्से में चोट है (जैसे CP में), तो सही थेरेपी से मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा उस कार्य को सीख सकता है। EI इसी “Rewiring” का लाभ उठाता है।

C. Need and Importance (आवश्यकता और महत्व)

  1. Preventing Developmental Arrest: विकास के किसी चरण पर रुक जाने से बचाना।
  2. Reducing Secondary Disabilities:
    • Example: एक सेरेब्रल पाल्सी (CP) वाले बच्चे का प्राथमिक मुद्दा मस्तिष्क क्षति है। लेकिन अगर उसे सही स्थिति (Positioning) में नहीं रखा गया, तो उसकी मांसपेशियां सिकुड़ जाएंगी (Contractures) और हड्डियां मुड़ जाएंगी (Deformities)। यह ‘Secondary Disability’ है। EI इसे रोकता है।
  3. Enhancing Functionality: बच्चे को आत्मनिर्भर बनाना ताकि वह भविष्य में समाज पर बोझ न बने।
  4. Economic Impact: “Prevention is cheaper than Cure.” बचपन में हस्तक्षेप पर खर्च किया गया पैसा भविष्य में विशेष स्कूलों और कस्टोडियल केयर के खर्च को बचाता है।
  5. Family Adjustment: माता-पिता अक्सर “शॉक” और “इंकार” (Denial) की स्थिति में होते हैं। EI उन्हें स्वीकार करने और सक्रिय होने में मदद करता है।

D. Domains of Early Intervention (हस्तक्षेप के क्षेत्र)

हस्तक्षेप बच्चे के Holistic Development (समग्र विकास) पर होना चाहिए।

  1. Physical/Motor Domain (शारीरिक विकास):
    • Gross Motor: बड़ी मांसपेशियों का उपयोग (गर्दन संभालना, बैठना, रेंगना, चलना)। फिजियोथेरेपिस्ट यहाँ काम करते हैं।
    • Fine Motor: छोटी मांसपेशियों का उपयोग (उंगली से पकड़ना, ब्लॉक जोड़ना)। ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट यहाँ काम करते हैं।
  2. Cognitive Domain (संज्ञानात्मक विकास):
    • सोचना, याद रखना, कारण-प्रभाव समझना (जैसे – बटन दबाने से खिलौना बजता है)।
    • Intervention: ऑब्जेक्ट स्थायित्व (Object Permanence) सिखाना, रंग और आकार पहचानना।
  3. Communication Domain (संचार विकास):
    • Receptive Language: बड़ों की बात समझना और निर्देशों का पालन करना।
    • Expressive Language: अपनी जरूरतों को बोलकर या इशारों से बताना।
    • Intervention: स्पीच थेरेपी, चित्र कार्ड (PECS) का उपयोग।
  4. Social-Emotional Domain (सामाजिक-भावनात्मक):
    • माता-पिता के साथ जुड़ाव (Bonding), अजनबियों से डरना, अपनी बारी का इंतजार करना, भावनाओं को व्यक्त करना।
    • Intervention: खेल चिकित्सा (Play Therapy), समूह गतिविधियाँ।
  5. Adaptive Domain (अनुकूली कौशल):
    • दैनिक जीवन के कार्य (ADL) – खुद खाना, बोतल पकड़ना, टॉयलेट ट्रेनिंग, कपड़े पहनना।

E. Twice Exceptional (2e) Children (दोहरी विशिष्टता)

Concept: “Twice Exceptional” (2e) उन बच्चों को कहा जाता है जो प्रतिभाशाली (Gifted) होने के साथ-साथ विकलांग (Disabled) भी होते हैं। यह एक विरोधाभास (Paradox) है।

Examples:

  • एक बच्चा जिसे Autism (ASD) है, वह सामाजिक रूप से बात नहीं कर पाता, लेकिन उसे कैलेंडर की तारीखें या ट्रेन का पूरा टाइमटेबल याद है।
  • एक बच्चा जिसे Dyslexia है, वह पढ़ नहीं पाता, लेकिन उसकी इंजीनियरिंग और विजुअल-स्थानिक (Visual-Spatial) समझ बहुत अद्भुत है।

Challenges in Identification (पहचान में चुनौतियां):

  1. Masking: बच्चे की बुद्धिमानी उसकी विकलांगता को छिपा लेती है। वह होशियारी से अपनी कमजोरी ढक लेता है (Compensatory strategies), जिससे उसे आवश्यक सहायता नहीं मिल पाती।
  2. Misdiagnosis: उसकी विकलांगता उसकी बुद्धिमानी को छिपा लेती है। शिक्षक केवल उसके खराब व्यवहार या खराब लिखावट को देखते हैं और उसे “कमजोर छात्र” मान लेते हैं।

Intervention Strategy for 2e: इन बच्चों के लिए “One size fits all” नहीं चलता। उन्हें Dual Differentiation चाहिए:

  1. Strength-Based Approach: उनकी प्रतिभा को पोषित करें (जैसे अगर वह विज्ञान में अच्छा है, तो उसे एडवांस प्रोजेक्ट दें)।
  2. Remedial Support: उनकी विकलांगता के लिए सहायता दें (जैसे अगर उसे Dysgraphia है, तो उसे लिखने के बजाय टाइप करने दें)।

Mindmap:

mindmap

🏥 4.2 Organising Cross Disability Early Intervention Services

भारत में विकलांगता सेवाएँ लंबे समय तक “Silo” (अलग-अलग डिब्बों) में थीं। एक माता-पिता को बच्चे को लेकर फिजियोथेरेपी के लिए एक अस्पताल, हियरिंग टेस्ट के लिए दूसरे क्लिनिक और विशेष शिक्षा के लिए तीसरे केंद्र जाना पड़ता था। इससे समय और ऊर्जा की बर्बादी होती थी और माता-पिता हार मान लेते थे।

Solution: Cross Disability Approach (समग्र विकलांगता दृष्टिकोण) इसका अर्थ है – “One Roof Approach”। एक ही छत के नीचे सभी प्रकार की विकलांगताओं (Sensory, Physical, Intellectual) के लिए स्क्रीनिंग, निदान और हस्तक्षेप सेवाएं।

District Early Intervention Centre (DEIC) – A Model of Cross Disability

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने RBSK (राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम) के तहत भारत के हर जिले में DEIC की स्थापना की है।

Objectives of DEIC:

  1. 0-6 वर्ष के बच्चों में 4 D’s (Defects, Diseases, Deficiencies, Developmental Delays) की स्क्रीनिंग करना।
  2. सभी थेरेपी सेवाएं एक जगह मुफ्त प्रदान करना।
  3. स्कूल जाने के लिए बच्चे को तैयार करना।

Organizational Structure & Roles (DEIC टीम): एक आदर्श DEIC में निम्नलिखित 10-11 पेशेवर होते हैं:

  1. Pediatrician (बाल रोग विशेषज्ञ): मेडिकल जांच और दवाओं के लिए।
  2. Medical Officer: स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए।
  3. Dental Surgeon: बच्चों के दांतों की समस्याओं (जैसे Cleft Palate) के लिए।
  4. Physiotherapist: सेरेब्रल पाल्सी और मोटर देरी वाले बच्चों के लिए व्यायाम।
  5. Audiologist & Speech Therapist: बहरेपन की जांच और बोलने का प्रशिक्षण।
  6. Psychologist: व्यवहार संबंधी मुद्दों, ऑटिज्म और IQ टेस्टिंग के लिए।
  7. Optometrist: दृष्टि दोष (Refractive errors/Squint) की जांच के लिए।
  8. Special Educator: संज्ञानात्मक विकास और स्कूल तत्परता (School Readiness) के लिए।
  9. Social Worker: माता-पिता की काउंसलिंग और उन्हें सरकारी योजनाओं (UDID, Pension) से जोड़ने के लिए।
  10. Lab Technician: खून की जांच (Anemia, Thalassemia) के लिए।
  11. DEIC Manager: केंद्र का प्रशासन संभालने के लिए।

Flow of Services at DEIC:

  1. Referral: आंगनवाड़ी या आशा वर्कर बच्चे को DEIC भेजती हैं।
  2. Registration: बच्चे का पंजीकरण होता है।
  3. Initial Assessment: बाल रोग विशेषज्ञ जांच करते हैं।
  4. Specialized Assessment: जरूरत के अनुसार बच्चे को संबंधित थेरेपिस्ट (जैसे PT या ST) के पास भेजा जाता है।
  5. Intervention Plan: पूरी टीम मिलकर बच्चे के लिए एक प्लान बनाती है।
  6. Follow-up: बच्चे को नियमित थेरेपी के लिए बुलाया जाता है।

📝 4.3 Screening and Assessments of Disabilities and Twice Exceptional Children

स्क्रीनिंग और असेसमेंट के बीच का अंतर समझना एक विशेष शिक्षक के लिए अनिवार्य है।

A. Screening (छानबीन)

Definition: यह एक “फिल्टर” प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य निदान (Diagnosis) करना नहीं है, बल्कि केवल उन बच्चों को अलग करना है जिन्हें विस्तृत जांच की आवश्यकता है।

Key Features:

  • Quick: 10-15 मिनट में हो जाती है।
  • Simple: इसे आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, शिक्षक या माता-पिता भी कर सकते हैं।
  • Result: Pass (कोई खतरा नहीं) या Fail/Refer (खतरा है)।

Important Screening Tools:

  1. Trivandrum Developmental Screening Chart (TDSC):
    • भारत में सबसे लोकप्रिय। 0 से 6 साल के बच्चों के लिए।
    • इसमें 17 आसान प्रश्न हैं (जैसे – क्या बच्चा गर्दन संभालता है? क्या वह दो शब्दों के वाक्य बोलता है?)।
    • बच्चे की ‘मानसिक उम्र’ का अंदाजा लगाने के लिए पेंसिल से लाइन खींची जाती है।
  2. M-CHAT-R/F (Modified Checklist for Autism in Toddlers):
    • 16 से 30 महीने के बच्चों में ऑटिज्म के खतरे को पहचानने के लिए।
    • इसमें 20 प्रश्न हैं (जैसे – क्या बच्चा उंगली से इशारा करता है? क्या वह आपकी आंखों में देखता है?)।
  3. RBSK Job Aids: आशा कार्यकर्ताओं के लिए सचित्र चेकलिस्ट।

B. Assessment (आकलन/निदान)

Definition: यह एक गहन प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य समस्या की जड़ तक पहुंचना और हस्तक्षेप योजना बनाना है।

Key Features:

  • Detailed: इसमें कई घंटे या कई सत्र लग सकते हैं।
  • Professional: इसे केवल योग्य पेशेवर (Psychologist, Special Educator) कर सकते हैं।
  • Outcome: IEP (Individualized Education Program) का आधार।

Types of Assessment:

  1. Norm-Referenced Test (NRT):
    • बच्चे की तुलना “मानक आबादी” (Norm group) से की जाती है।
    • Example: IQ Test (Binet Kamat Test, WISC)। यह बताता है कि बच्चा अपनी उम्र के अन्य बच्चों से कितना पीछे है।
  2. Criterion-Referenced Test (CRT):
    • बच्चे की तुलना “कौशल” (Criteria) से की जाती है।
    • Example: Portage Guide (PGEE), FACP (Functional Assessment Checklist for Programming), Upanayan
    • विशेष शिक्षा में CRT सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि “बच्चा क्या कर सकता है” और “क्या सिखाना है”।

C. Assessment of 2e Children (चुनौतियां)

2e बच्चों का आकलन करते समय “Scatter Analysis” जरूरी है।

  • एक सामान्य IQ टेस्ट में, उनका ‘Full Scale IQ’ औसत आ सकता है (क्योंकि उच्च और निम्न स्कोर मिलकर औसत हो जाते हैं)।
  • हमें ‘Sub-test Scores’ देखने चाहिए। हो सकता है कि ‘Verbal Comprehension’ में उनका स्कोर 140 (Gifted) हो, लेकिन ‘Processing Speed’ में 70 (Disabled)। यह अंतर ही 2e की पहचान है।

🤝 4.4 Role of Parents, Community, ECEC and Stakeholders

कानून और नीतियां अब बच्चे को अलगाव में नहीं, बल्कि उसके पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) में देखती हैं।

A. Role of Parents (माता-पिता की भूमिका)

“माता-पिता बच्चे के जीवन में निरंतरता (Continuity) लाते हैं, जबकि पेशेवर आते-जाते रहते हैं।”

  1. Information Providers: डॉक्टर केवल लक्षण देखता है, माता-पिता बच्चे का पूरा इतिहास जानते हैं।
  2. Co-Therapists: थेरेपी केंद्र में बच्चा केवल 45 मिनट रहता है। असली थेरेपी घर पर होती है। माता-पिता को थेरेपिस्ट द्वारा सिखाया जाता है कि बच्चे को कैसे खिलाना है, कैसे बात करनी है।
  3. Advocates: RPWD Act 2016 के तहत माता-पिता को अधिकार है कि वे स्कूल प्रशासन से अपने बच्चे के लिए सुविधाओं (Ramp, Resource Room) की मांग करें।
  4. Decision Makers: IFSP (Individualized Family Support Plan) में लक्ष्य माता-पिता तय करते हैं, पेशेवर नहीं।

B. Role of Community & Anganwadi

  1. Anganwadi Workers (AWW):
    • ग्रोथ मॉनिटरिंग: वजन और ऊंचाई का चार्ट भरना।
    • कुपोषण की पहचान: सैम (SAM – Severe Acute Malnutrition) बच्चों को पोषण पुनर्वास केंद्र भेजना।
    • रेफरल: विकलांगता के लक्षण दिखने पर DEIC भेजना।
  2. Community Stigma: समुदाय की जिम्मेदारी है कि वह विकलांगता को “पाप” या “श्राप” न माने। समावेशी खेल के मैदान और सामाजिक कार्यक्रमों में भागीदारी सुनिश्चित करना।

C. National Education Policy (NEP) 2020 on ECCE

NEP 2020 ने “विशेष शिक्षा” को मुख्यधारा में शामिल किया है।

  1. Fundamental Stage (5+3+3+4): शिक्षा के ढांचे में पहले 5 साल (3 साल आंगनवाड़ी + क्लास 1 और 2) को ‘फाउंडेशनल स्टेज’ कहा गया है। यह वही उम्र है जब EI होता है।
  2. Inclusion from the Start: नीति स्पष्ट करती है कि आंगनवाड़ी और प्री-स्कूल समावेशी होंगे। विकलांग बच्चों के लिए अलग स्कूल नहीं होंगे।
  3. Training of AWW: आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स कराया जाएगा ताकि वे विकलांग बच्चों को संभाल सकें।
  4. School Readiness: इसका लक्ष्य है कि हर बच्चा (विकलांगता सहित) क्लास 1 में प्रवेश करते समय “स्कूल के लिए तैयार” हो।

D. RPWD Act 2016 Mandates (Section 25)

धारा 25 स्वास्थ्य सेवा और रोकथाम से संबंधित है। यह सरकार को निर्देश देती है:

  1. Free Healthcare: विकलांग बच्चों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य सेवा।
  2. Screening: सभी बच्चों की साल में कम से कम एक बार स्वास्थ्य जांच।
  3. Training: प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) के स्टाफ को विकलांगता की पहचान के लिए प्रशिक्षित करना।
  4. Awareness: प्री-नेटल और पोस्ट-नेटल देखभाल के बारे में जागरूकता फैलाना।

🏠 4.5 Models of Early Intervention & Transition

हस्तक्षेप सेवाएं कैसे दी जाती हैं, इसके अलग-अलग मॉडल हैं। हर मॉडल के अपने फायदे और नुकसान हैं।

A. Home-Based Model (गृह-आधारित मॉडल)

Concept: पेशेवर (Special Educator/Therapist) बच्चे के घर जाता है और वहां सेवाएं देता है। The Portage Model: यह दुनिया का सबसे प्रसिद्ध होम-बेस्ड मॉडल है।

  • Process: एक ‘Home Visitor’ सप्ताह में एक बार घर जाता है। वह बच्चे का आकलन करता है और माता-पिता को एक गतिविधि (Activity) सिखाता है। माता-पिता पूरे सप्ताह बच्चे के साथ वह गतिविधि करते हैं। अगले सप्ताह प्रगति की समीक्षा होती है।
  • Pros (लाभ):
    • बच्चा अपने प्राकृतिक वातावरण में सीखता है, जिससे डर नहीं लगता।
    • कौशल का ‘Generalization’ आसान होता है (क्लिनिक में सीखा कौशल घर पर नहीं कर पाता, लेकिन घर पर सीखा कौशल स्थायी होता है)।
    • सस्ता है, क्योंकि केंद्र का खर्च नहीं लगता।
  • Cons (हानि):
    • माता-पिता पर बहुत जिम्मेदारी आ जाती है।
    • घर में विशेष उपकरण नहीं होते।
    • बच्चे का समाजीकरण (Socialization) नहीं हो पाता।

B. Center-Based Model (केंद्र-आधारित मॉडल)

Concept: माता-पिता बच्चे को लेकर एक केंद्र (DEIC, Special School, Therapy Clinic) पर आते हैं। Process: बच्चा दिन में कुछ घंटे केंद्र पर रहता है जहाँ विशेषज्ञ (PT, OT, ST) उसके साथ काम करते हैं।

  • Pros (लाभ):
    • सभी विशेषज्ञ और उपकरण (Sensory Room, Physio Balls) एक जगह मिलते हैं।
    • बच्चा दूसरे बच्चों से मिलता है, खेलता है और सामाजिक कौशल सीखता है।
    • माता-पिता को ‘Respite’ (राहत) मिलती है और वे दूसरे माता-पिता से मिल सकते हैं (Peer Support)।
  • Cons (हानि):
    • बच्चे को रोज ले जाना (Transportation) मुश्किल और महंगा होता है।
    • बच्चे केंद्र पर तो अच्छा करते हैं, लेकिन घर पर वही व्यवहार नहीं दोहराते।

C. Hospital-Based Model (अस्पताल-आधारित मॉडल)

Concept: यह मुख्य रूप से चिकित्सकीय आवश्यकताओं के लिए है। Target Group: NICU में भर्ती शिशु, सर्जरी के बाद के मामले, या गंभीर मिर्गी वाले बच्चे।

  • Focus: यहाँ प्राथमिकता ‘शिक्षा’ नहीं, बल्कि ‘जीवन रक्षा’ (Survival) और ‘स्थिरता’ (Stability) है।

D. Combination Model (मिश्रित मॉडल)

Concept: यह सबसे व्यावहारिक और प्रभावी मॉडल है।

  • इसमें बच्चा सप्ताह में 2-3 दिन केंद्र आता है (ताकि उसे समाजीकरण और उपकरण मिले)।
  • और महीने में 1-2 बार शिक्षक घर जाता है (यह देखने के लिए कि घर का माहौल कैसा है और माता-पिता को मार्गदर्शन देने के लिए)।

E. Transition from Home to School (घर से स्कूल संक्रमण)

EI का अंतिम लक्ष्य बच्चे को स्कूल भेजना है। यह एक कठिन समय होता है।

The Shift:

  • From IFSP to IEP: 0-3 साल तक योजना ‘परिवार केंद्रित’ (IFSP) होती है।


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